अभिनेता राजकुमार पर भारी दिखा स्टार राजकुमार, दर्शकों से रिश्ता नहीं जोड़ पाया ‘श्रीकांत’
तुषार हीरानंदानी ने हिंदी सिनेमा मे बीते 20 साल हर तरह की फिल्में लिखते बिताए हैं। साल 2004 में फिल्म ‘मस्ती’ से शुरुआत करने वाले तुषार की बतौर निर्देशक फिल्म ‘सांड़ की आंख’ के बाद ये दूसरी फिल्म है। बीच में वह वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ भी निर्देशित कर चुके हैं। तुषार की लिखी फिल्मों में कॉमेडी फिल्मों की संख्या काफी है और उनकी लिखी फिल्म ‘क्यों हो गया ना’ भले न चली हो लेकिन उसकी लिखावट में बुने गए भावनात्मक दृश्य अपने समय से काफी पहले के एहसास माने जा सकते हैं। तुषार अच्छे लेखक हैं। ‘स्कैम 2003’ में उनका निर्देशन भी निखरा दिखाई दिया। लेकिन, इस बार उन्होंने एक ऐसे विषय पर फिल्म बनाने का फैसला किया है, जिसके अधिकार खरीदने के बाद भी राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैसा निर्देशक उस पर फिल्म बनाने का साहस नहीं जुटा पाया।
तुषार ने चुना काबिले तारीफ विषय
दिलीप कुमार की फिल्म ‘दीदार’ से लेकर नसीरुद्दीन शाह की ‘स्पर्श’, रानी मुखर्जी की ‘ब्लैक’, काजोल की फिल्म ‘फना’ से होते हुए सोनम कपूर की हालिया रिलीज फिल्म ‘ब्लाइंड’ तक हिंदी सिनेमा में दृष्टिहीन किरदारों का लंबा सिलसिला रहा है। इसमें आंखें होते हुए भी दृष्टिहीन बनकर रहने वाले ‘अंधाधुन’ जैसे किरदारों को जोड़ दें तो फेहरिस्त और लंबी हो सकती है। हर बड़ा स्टार एक बड़ा कलाकार बनने के लिए अपनी अभिनय यात्रा में कम से कम एक बार दृष्टिहीन किरदार करने की ख्वाहिश रखता ही है। फिल्म ‘सांड़ की आंख’ में बुजुर्ग निशानेबाजों की कहानियां बताने वाले तुषार की वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ में खूब तारीफ हुई और तारीफ उनकी फिल्म ‘श्रीकांत’ बनाने के लिए भी होने वाली है।
श्रीकांत से श्रीकांत तक
फिल्म ‘श्रीकांत’ मनोरंजन के लिए बनी फिल्म नहीं है। ये फिल्म उन व्यवस्थाओं की तरफ उंगली उठाने वाली बायोपिक है जिनसे लड़कर श्रीकांत बोल्ला एक सफल कारोबारी बने। तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम से मिलने पहुंचे छात्रों में से जब एक छात्र बड़ा होकर देश का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनने का इरादा जाहिर करता है और फिल्म खत्म होने के बाद जब स्क्रीन पर ये लिखकर आता है कि श्रीकांत बोल्ला आज भी अपनी इस ख्वाहिश के साथ जी रहे है तो फिल्म का मकसद साफ हो जाता है। फिल्म की कहानी श्रीकांत बोल्ला के जन्म से शुरू होती है, जब उसका पिता लोगों की ये सलाह मानकर अपने बेटे को दफनाने पहुंच जाता है कि इसे अभी मार दो नहीं तो जीवन भर ये कष्ट में रहेगा और माता-पिता को भी कष्ट देता रहेगा। पिता उसका नाम क्रिकेटर कृष्णामाचारी श्रीकांत के नाम पर रखता है और वह बड़ा होकर क्रिकेट खेलता भी है।