उत्तराखंड रोडवेज को अस्तित्व बचाने के लिए होगा ये, तीन साल में 200 बस हुई कम
उत्तराखंड रोडवेज को अस्तित्व बचाने के लिए जल्द संभलना होगा। रोडवेज के बस बेड़े में तीन साल के भीतर दो सौ बसें कम हो गई हैं। वहीं, कोरोनाकाल में घाटा 250 करोड़ से बढ़कर 520 करोड़ रुपये पहुंच गया है।
हालत इतने खराब हैं कि रोडवेज पाई-पाई जुटाकर कर्मचारियों के वेतन का इंतजाम कर रहा है। ऐसे में रोडवेज को बचाने के लिए ठोस योजना बनाने की जरूरत है।
यूपी से अगल होकर अक्तूबर 2003 में उत्तराखंड परिवहन निगम बना। तब रोडवेज के हिस्से 957 बसें आई थीं। इसके बाद कभी 25 तो कभी 50 बसों की खरीद हुई। 2016 में तत्कालीन हरीश रावत की सरकार में 484 बसें खरीदी गईं। तब बेड़ा 1520 बसों तक पहुंच गया था।
2018 तक यही बेड़ा रहा। इसके बाद 2019 में 300 बसों की खरीद हुई। खरीद के साथ ही हर साल आयु और किलोमीटर पूरा करने वाली बसें नीलाम भी होती रहीं। इससे मौजूदा समय में रोडवेज का बस बेड़ा 1330 पहुंच गया है। तीन साल के भीतर रोडवेज में 200 बसें घट गई हैं। अभी नई बसों की खरीद की कोई योजना नहीं है, यदि योजना बने भी तो करोड़ों के घाटे से जूझ रहे रोडवेज के लिए बस खरीदना चुनौती है।
गठन के बाद सिर्फ वर्ष 2007 ऐसा है जब रोडवेज को घाटा नहीं हुआ। बाकी सभी साल रोडवेज करोड़ों के घाटे में रहा। मार्च 2020 तक घाटा 250 करोड़ रुपये था, लेकिन कोरोनाकाल में यात्रियों की संख्या घटने से घाटा बहुत तेजी से बढ़ा। वर्तमान में घाटा 520 करोड़ तक पहुंच गया है। अब स्थिति यह है कि रोडवेज कर्मचारियों को भी समय पर वेतन तक नहीं दे पा रहा है।
जब उत्तराखंड रोडवेज बना था, तब यूपी रोडवेज से 7100 कर्मचारी मिले थे। इसमें 300 संविदा कर्मचारी थे, बाकी सभी नियमित थे, लेकिन वर्तमान में रोडवेज में करीब 2700 नियमित कर्मचारी हैं। 3500 के करीब संविदा और विशेष श्रेणी के कर्मचारी हैं। नियत कर्मचारियों की संख्या घट गई है।
रोडवेज कुप्रबंधन का शिकार है। यूपी के दौरान जो तकनीकी खर्च था, वह आज ढाई गुना हो गया है। तकनीकी खर्च और कार्यालयों की उत्पादकता बहुत खराब है। सिर्फ ड्राइवर-कंडक्टरों का प्रदर्शन संतोषजनक है। यूपी से जो परिसंपत्तियों के 800 करोड़ रुपये मिलने हैं, उसके लिए भी कर्मचारी यूनियन को ही न्यायालय की शरण में जाना पड़ा है।