चीन और ताइवान का टकराव, शुरू हो सकता है युद्ध
चीन और ताइवान का टकराव फिर सतह पर है। 40 साल में दोनों देशों के बीच इसे सबसे बुरी स्थिति बताया जा रहा है। एक ओर चीन का कहना है कि वह हर हाल में ताइवान को अपने नियंत्रण में लाकर रहेगा, तो दूसरी ओर ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने खुले शब्दों में कहा है कि ताइवान का भविष्य चीन नहीं तय कर सकता।
चीन का मानना है कि ताइवान उसका ही एक छिटका हुआ प्रांत है, जो कभी न कभी फिर मिल जाएगा। वहीं, ताइवान के ज्यादातर लोग ऐसा नहीं मानते। भले ही आधिकारिक रूप से आजादी का एलान न हुआ हो, लेकिन वे स्वयं को एक स्वतंत्र राष्ट्र का नागरिक मानते हैं।
चीन और ताइवान के साथ का इतिहास पुराना है। वर्ष 239 में चीन के एक सम्राट ने ताइवान में अपने सैनिक भेजे थे। उस दौरान पहली बार चीन के हिस्से के रूप में ताइवान का जिक्र होता है। मौजूदा समय में भी ताइवान पर अपने दावे के लिए चीन इस तथ्य का इस्तेमाल करता है। औपनिवेशिक काल में ताइवान कुछ समय डच उपनिवेश रहा था। इसके बाद 1683 से 1895 तक यहां चीन के किंग राजवंश का शासन रहा।
1895 में जापान से हार के बाद किंग सरकार ने ताइवान का नियंत्रण जापान को दे दिया था। इसके बाद अगले कुछ दशक तक जापान का नियंत्रण रहा। दूसरे विश्व युद्ध में जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया था। इसके बाद चीन ने अमेरिका और ब्रिटेन की सहमति से फिर ताइवान पर नियंत्रण कर लिया।
अगले कुछ वर्षो में चीन में गृहयुद्ध शुरू हो गया। शासक चियांग काई-शेक की सेना माओ जेदांग की कम्युनिस्ट सेना से हार गई। चियांग और कुओमिनतांग (केएमटी) सरकार के उनके सहयोगी 1949 में भागकर ताइवान पहुंच गए। अगले कई साल ताइवान की राजनीति पर उनका वर्चस्व रहा। बाद में ताइवान में लोकतंत्र के जनक कहे जाने वाले राष्ट्रपति ली तेंग-हुई ने संवैधानिक बदलाव किया और वर्ष 2000 में पहली बार केएमटी पार्टी से इतर राष्ट्रपति चुने जाने की राह खुली और चेन शुई-बियान राष्ट्रपति बने।